मंजिल....
कुछ समय पहलए
अकेले निकल चले थे हम,
मंजिल की तलाश मेँ...
कोई अपना भी साथ ना था,
अजनबी थे रास्ते..पे.
पर देखो खुदा की रहमत,
कुछ ऐसी हुयी हम पे...
हम निकले जिस सड़क पर,
सच्चाई चले थे सात पे.
वहाँ कारवाँ चलने लगा...
अपनी सोच बदल ने को
रंग और भेद जात और मज़हब
जो भी हो आदमी से कमतर है
इस हकीक़त को तुम भी मेरी तरह
मान जाओ तो कोई बात बने.....
नफरतों के जहां में हमको
प्यार की बस्तियां बसानी है
दूर रहना कोई कमाल नहीं
पास आओ तो कोई बात बने
अपनी सोच बदलनी होगी..!
सच्चाई की मंजिल पाने मेँ....
सदा बहार ..
No comments:
Post a Comment